मुंबई। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को वामपंथ का गढ़ माना जाता है। इस विश्वविद्यालय पर वामपंथी विचारधारा शुरू से ही हावी रही है। यही वजह है कि यह विश्वविद्यालय सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को लेकर के भी मुखर रहा है। अब इस विश्वविद्यालय में जिस तरह से फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ की स्क्रीनिंग इसके रिलीज होने के पहले की गई है उसे लेकर के कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। कहां जा रहा है कि इस फिल्म में जिहाद के मकसद से केवल से लापता की गई बड़ी संख्या लड़कियों को सीरिया भेजने की कहानी बयां की गई है। हालांकि कई संगठनों ने इस फिल्म के कंटेंट पर आपत्ति दर्ज की है और यह मामला कोर्ट में भी लंबित है।
ऐसे में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस फिल्म की स्क्रीनिंग का क्या मकसद है?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र पॉलिटिक्स की समझ रखने वाले लोगों का कहना है कि यह फिल्म सीधे पैर से जेहाद पर प्रश्न लगा रहा है। पिछले कुछ समय से जेएनयू में दक्षिणपंथी विचारधारा तेजी से अपना पैर पसारने में लगी हुई है। यह फिल्म ऐसे छात्रों को जिनका झुकाव दक्षिण पंथ की तरफ है एकजुट करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। इस फिल्म की टीम के लोगों का मानना है कि यदि दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों का समर्थन इस फिल्म को मिलता है तो यह फिल्म देशभर में अच्छी कमाई कर सकती है जैसा कि द कश्मीर फाइल्स ने की थी। जिस तरह से इस फिल्म को प्रोपगेट किया गया है उससे भी साफ पता चल रहा है कि यह फिल्म। एक वर्ग विशेष को लामबंद करने का एक हिस्सा हो सकता है। हालांकि फिल्म से जुड़े हुए लोग इस तरह की बातों से साफ तौर पर इंकार कर रहे हैं। फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन का कहना है कि फिल्म का संबंध कला से। फिल्म को इसीलिए हाथ से देखना चाहिए। यदि आप लोगों को पसंद आती है तो हम समझेंगे कि हमारी मेहनत सफल रही। इस फिल्म को लेकर के अदालत का दरवाजा खटखटाया जाने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है कि देश की अदालत पर उन्हें 100% विश्वास है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों का एक समूह इस फिल्म को एक प्रोपेगेंडा फिल्म करार दे रहा है। उनका कहना है कि जिस तरीके से इस फिल्म में केरल से लापता होने वाली लड़कियों का चित्रण किया गया है वह सरासर गलत है। यह कैसे संभव हो सकता है कि किसी राज्य से बहुत बड़ी संख्या में लड़कियां गायब हो जाएं और उनके बारे में कहीं कोई रिपोर्ट तक ना लिखी जाए। इस फिल्म की स्क्रीनिंग जिस तरह से जेएनयू में की जा रही है उससे पता चलता है कि इस फिल्म का इस्तेमाल कैसे छात्रों के बीच फर्क को और मजबूत करने के लिए किया जा रहा है।