कंटेंट के लेवल पर क्यूं ठहरी हुई सी है भोजपुरी फिल्में ?

आलोक नंदन शर्मा। समय के साथ भोजपुरी फिल्मों का एक बाजार तो खड़ा हो चुका है लेकिन कंटेट के लेवल पर आज भी यह दरिद्र है। भोजपुरी की तुलना में देश के अन्य सूबों की क्षेत्रीय भाषा की फिल्में मुख्य धारा की हिन्दी फिल्मों के साथ न सिर्फ होड़ कर रही हैं बल्कि कई स्तर परउन्हें पीछे भी धकेलने की जुर्रत दिखा रही हैं और अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में भी जगह पा रही हैं। इनकी तुलना में भोजपुरी फिल्में कहीं टिकती हुई नहीं दिख रही है, लोकप्रियता और कंटेंट दोनों के लिहाज से। वैसे यह भी सच है कि निरहुआ, रवि किशन और मनोज तिवारी तिवारी जैसे अभिनेता भोजपुरी फिल्मों के जरिये ही लोकप्रियता हासिल करके संसद में प्रवेश करने में कामयाब हुए हैं और अब देश का कानून बनाने की प्रक्रिया में सहभागी बन रहे हैं। इनके अलावा बड़ी संख्या में अभिनेत्रियां, सहायक कलाकार, तकनीशियन, गीतकार और संगीतकार भोजपुरी फिल्मों में अपना हुनर दिखाकर न सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन कर रहे हैं बल्कि नई पीढ़ी को भी इस क्षेत्र में आने के लिए आकर्षित कर रहे हैं। अब प्रोड्यूसर भी अपनी भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग यूरोपीय देशों में करने से नहीं हिचक रहे हैं, क्योंकि भोजपुरी फिल्मों को लगातार मिल रही सफलता की वजह से उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा है।
लेकिन यह भी सच है कि एक लंबी दूरी तय करने के बावजूद आज भी भोजपुरी फिल्में कंटेट और प्रयोग के स्तर पर बंगाली, असमी, उड़िया और मराठी फिल्मों के बरअक्श काफी पीछे हैं, भोजपुरी फिल्मों में 80-90 के दशक के सुपर हिट हिन्दी फिल्मों को कट पेस्ट करने का दौर चल रहा है। ‘हे गंगा मइया तोहे पीयरी चढ़इबो’, ‘कल हमारा है’, ‘माई के लाल’ व ‘दंगल’जैसी बेहतरीन फिल्मों के जरिये एक लंबा सफर तय करने वाली भोजपुरी फिल्में ठहर सी क्यों गयी है, बंगाली, असमी, गुजराती, मराठी, पंजाबी, उड़िया, केरली, कोंकणी फिल्मों की तुलना में यह पिछड़ेपन की शिकार क्यों है? यदि साफ शब्दों कहा जाये तो भोजपुरी फिल्मों में वह चिंगारी (स्पार्क) नजर क्यों नहीं आती जो अन्य प्रांतों की फिल्मों में दिखती है? भोजपुरी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक व कलाकार चोली घाघरा, यौवन, व ठाकुर की बंदूक से निकल कर पुराने दशकों की फार्मलू मुंबइया फिल्मों को कट पेस्ट करने से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं ? भोजपुरी फिल्मों में वैविधता क्यों नहीं है, अलग जॉनर की फिल्मों का अकाल क्यों हैं? इस आलेख में भोजपुरी फिल्मों के विभिन्न विधा से जुड़े दशकों पुराने और नये लोगों से बातचीत करते हुए इन तमाम प्रश्नों को टटोलने की कोशिश की गई है।

‘प्रयोगधर्मी भोजपुरी फिल्मों के लिए प्रोड्यूसर कहां है?’: प्रेमांशु सिंह, फिल्म निर्देशक

भोजपुरी फिल्मों के निर्देशक के तौर पर एक ऊंचा मुकाम बनाने वाले प्रेमांशु सिंह पूरी दृढ़ता से इस बात को खारिज करते हैं कि भोजपुरी फिल्म अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों तुलना में कमजोर हैं। वह सवालिया लहजे में कहते हैं, “उधार के कंटेंट का इस्तेमाल किस भाषा की फिल्मों में नहीं हो रहा है ? यहां तक कि बॉलीवुड में हॉलीवुड और साउथ की फिल्मों का नकल करने का चलन जोरो पर है। इसलिए सिर्फ भोजपुरी फिल्म पर कट पेस्ट का तोहमत लगाना उचित नहीं है। हां, कंटेट की कमी हो सकती है, लेकिन यह भी सच है कि भोजपुरी में भी बेहतरीन कंटेंट वाली मौलिक फिल्में आ रही हैं और लोग इसे पसंद भी कर रहे हैं। ‘ससुरा बड़ा पैसा वाला’ मौलिक कंटेंट वाली फिल्में नहीं है क्या ? भोजपुरी में और भी बहुत सारी मौलिक कंटेंट वाली फिल्में हैं। लेकिन यह भी सच है कि इस दिशा में और भी काम करने की जरूरत है।’’
भोजपुरी में प्रयोगधर्मी फिल्मों के अभाव पर वह कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि इस दिशा में लोगों ने कोशिश नहीं की। कुछ लोगों ने ट्राई किया था, लेकिन वर्क आउट नहीं हो सका। यदि हम हार्रर फिल्में बनाते हैं तो उसके लिए सेट चाहिए, साउंड इफेक्ट चाहिए। साउंड इतने पुअर हैं कि हारर की जगह पर कॉमेडी हो जाएगी। और सबसे बड़ी बात यह है कि ऑडियंस भी मानसिकतौर पर उस तरह की फिल्मों के लिए चाहिए! भोजपुरी भाषी लोग पारिवारिक ड्रामा और एक्शन वाली फिल्में देखना पसंद करते हैं, तो प्रोड्यूसर भी दूसरे जॉनर की फिल्मों पर रिस्क क्यूंकर ले? उनका सीधा सा फंडा है फिल्मों में पैसा लगाकर पैसा निकालने का। यदि दूसरे जॉनर की फिल्में सफल नहीं होंगी तो उसे बनाने से क्या फायदा?”
थोड़ी देर रुककर वह फिर बोलना शुरु करते हैं, ‘लोगों की जेहनियत पर तालीम का भी असर होता है। बंगाली कल्चर में किताबें बांटी जाती है, वहां कि संस्कृति को समृद्ध करने में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है। यही वजह है कि वहां की फिल्मों के कंटेट में विविधता है। कॉमर्शियल फिल्म और पैरेल फिल्म साथ साथ बढ़ी हैं, और बढ़ रही हैं। हम भी वैसी फिल्में बनाना चाहते हैं और बना सकते हैं लेकिन उसके लिए प्रोड्यूसर चाहिए। फिर भी हमलोगों ने अपने स्तर पर कोशिश की है, दूसरे इंडस्ट्री से ज्यादा पीछे नहीं है। तकनीक के इस्तेमाल के लिहाज से भी हमलोग समृद्ध हैं।’
भोजपुरी फिल्मों और खासकर भोजपुरी गानों पर अश्लीलता के आरोप भी लंबे समय से लगते आ रहे हैं। इस आरोप को निर्देशक प्रेमांशु सिंह खारिज करते हुए कहते हैं,‘ फिल्म और एलबम के बीच के गानों के अंतर को समझना चाहिए। भोजपुरी एलबम वाले गानों में अश्लीलता मिलेगी न कि भोजपुरी फिल्मों के गानों में। फिल्मों में अश्लील गानों को कट करने के लिए सेंसर बोर्ड तैयार बैठा है। पब्लिक दोनों को मिसमैच कर लेती है, जबकि एलबम के गाने अलग हैं और फिल्मों के गाने अलग। अब भोजपुरी फिल्मों का पैटर्न पूरी तरह बदल चुका है।’

यह पूछे जाने पर कि भोजपुरी फिल्मों के जितने भी सुपरस्टार हैं, मनोज तिवारी, निरहुआ, खेसारी या फिर पवन सिंह सभी गायक हैं। तो क्या भोजपुरी में यह ट्रेंड बन चुका है कि स्टार होने के लिए गायक होना जरूर है, वह कहते हैं, ‘यह ट्रेंड सिर्फ भोजपुरी में ही नहीं है,बल्कि पंजाबी फिल्मों में भी है। पंजाबी फिल्मों के स्टार गायकी भी करते हैं और अभिनय भी। चुंकि इन लोगों का अपने फैन फोलोअर्स हैं। इसलिए प्रोड्यूसर्स को भी लगता है कि इनको फिल्मों में लेने से कम से कम इनके फैन फोलोअर्स का सपोर्ट तो मिल ही जाएगा। इनको लेने का मतलब पैसा निकलने की गारंटी रहती है। इस तरह के हीरो को कास्ट करते हैं तो वह अपना ऑडियंस लेकर आता है।’

यह पूछे जाने पर कि भोजपुरी फिल्मों के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है, प्रेमांशु सिंह कहते हैं सिंगल थियेटरों की खस्ताहाल होना। सिंगल थियेटर भोजपुरी फिल्मों की लाइफ लाइन है। मल्टीप्लेक्स में भोजपुरी फिल्मों को जगह नहीं मिलती है और सिंगल थियटरों की स्थिति इतनी जर्जर हो चुकी है कि वहां दर्शक जाने से कतराते हैं। जब फिल्म बनकर दर्शकों के पास पहुंचेगी तभी तो वे देखेंगे। जरूरत है सिंगल थियेटरों को दुरुस्त करने की।

‘अच्छी कहानी और अच्छी स्क्रीप्ट की डिमांग बढ़ी है’: विक्रांत सिंह, फिल्म अभिनेता

40 से अधिक फिल्मों में अपने अभिनय से दर्शकों के बीचे अपनी एक अलग पहचान बनाने वाले अभिनेता विक्रांत सिंह भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि भोजपुरी फिल्मों में बेहतर कंटेट की कमी रही है, लेकि साथ ही वह कहते हैं,“ ऐसा नहीं है कि बेहतर कंटेट देने वाले लोग भोजपुरी में नहीं आये हैं। लेकिन उनकी कद्र ही नहीं हुई और जब उनकी कद्र नहीं हुई तब वे हिन्दी फिल्मों की ओर मुखातिब हो गए। मैंने भी शुरुआत भोजपुरी फिल्मों से की थी, क्योंकि यह मेरी अपनी भाषा है और इस भाषासे मुझे प्यार भी है और इस पर गर्व भी है। लेकिन फिर मुझे यहां काम नहीं मिला तो मैं हिन्दी फिल्मों और दूसरे शो करने लगा। वहां पर मेरे काम को देखकर फिर मुझे भोजपुरी फिल्म करने के लिए बुलाया गया तो मैं करने लगा। अभी मैं बैक टू बैक दस फिल्में कर रहा हूं। पिछले कुछ साल से भोजपुरी फिल्मों का ट्रेंड भी बदला है। अच्छी कहानी और अच्छी स्क्रीप्ट की डिमांग बढ़ी है, इसलिए अब फिल्मकार और लेखक भी इस पर ज्यादा मेहनत कर रहे हैं। ”
भोजपुरी फिल्मों और गानों में व्याप्त अश्लीलता पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं, “मैं एक कंफ्यूजन दूर कर देना चाहता हूं कि भोजपुरी फिल्म और एल्बम दोनों दो चीज है। भोजपुरी फिल्मों में इस्तेमाल किए जा रहे गाने आज भी अश्लील नहीं है। अश्लील गाने से सिर्फ भोजपुरी एलबम में बन रहे हैं। यहां गांव-गांव गली-गली में गायक पैदा हो गये हैं, जिन्हें न तो गायकी की तमीज है और न ही नाचने गाने और अभिनय करने की। अश्लील तुकबंदी करके गाने तैयार करते हैं और फिर उस पर फुहड़ तरीके से ठुमकते हैं। ऐसे लोगों की वजह से ही लोगों को लगता है कि भोजपुरी फिल्मों और गानों में अश्लीलता ज्यादा है।”

‘नचनियों-गवनियों का कब्जा है’

पिछले चार दशक से फिल्म कारोबार जुड़े से एक प्रोड्यूसर और डायरेक्टर अपना नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि सिंगल थियेटर लगभग पुरी तरह से खत्म हो चुके हैं। जो थोड़ा बहुत बचे हुए भी हैं वो भी खत्म हो जाएंगे। जब दर्शक आएंगे ही नहीं तो फिर फिर सिंगल थियेटर चलाने का मतलब क्या रह जाएगा। मेरा परिवार सिंगल थियेटर का कारोबार जुड़ा रहा है। एक सिंगल थियेटर का रखरखाव कैसे होता है मुझे अच्छी तरह से पता है।

वह आगे कहते हैं कि हमलोग फिल्मों के डिस्ट्रिब्यूशन के कारोबार से भी जुड़े रहे, प्रोड्यूसर और डायरेक्शन के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे। मैंने भोजपुरी में कई बेहतरीन हिट फिल्में दी हैं। जिस दौर में हमलोग फिल्म बना रहे थे उस दौर में फिल्म की कहानी और ट्रीटमेंट का विशेष ख्याल रखा जाता था। ऐसा कोई सीन नहीं बनाते थे जिसे परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठकर नहीं दे सके। पहले लोग भी थियेटरों में अपने परिवार के साथ भोजपुरी फिल्म देखने आते थे।

अब भोजपुरी में वैसी फिल्में नहीं बन रही है। इसका कारण पूछे जाने पर वह कहते हैं, ‘बेसिकली भोजपुरी फिल्मों पर नचनियों और गवइयों का कब्जा हो गया है। इनमें से ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। इनकी नजर में फिल्म का मतलब है नाच-गाना फूहड़ कॉमेडी, मारधाड़, द्विअर्थी संवाद और देवर, -भाभी- भौजाई, साला-ससुर, जीजा साली, बस हो गई इनकी फिल्म! अब इन लोगों से आप कैसी फिल्म का उम्मीद करेंगे? असमी, बंगाली, मराठी भाषा में बनने वाली क्षेत्रीय फिल्मों तक तो इनकी सोच ही नहीं जाती है। ऐसे लोगों से बेहतर कंटेट की उम्मीद करना पत्थर पर सिर पटकने के बराबर है।’
यह कहने पर कि लेकिन इसी कंटेट की बदौलत तो भोजपुरी फिल्में सालाना दो हजार करोड़ रुपये का कारोबार करने लगी हैं वह सवालिया लहजे में कहते हैं, “कौन कहता है, और जो भी कहता है गलत कहता है। भोजपुरी में कुछ लोग अपने आप को सुपर स्टार के रूप में पेश करते हैं। यही लोग इस तरह की हवा उड़ाते हैं ताकि इनकी दुकान चलती रहे। सिंगल थियेटर के खत्म होने से अक्षय कुमार जैसे हिन्दी फिल्म के हीरो का बाजार ढेड़ करोड़ से 30-40 लाख रुपये प्रति दिन पर सिमट गया तो फिर खुद को सुपर स्टार घोषित करन वाले इन भोपुरिया स्टारों का क्या हाल है आप इसका सहजता से अनुमान लगा सकते हैं। ”

वह आगे कहते हैं, “लोग पैसा खर्च करके थियेटरों में फिल्म देखने क्यों जाते हैं? उन्हें कुछ नया चाहिए होता है, कुछ बेहतर चाहिए होता है। बासी कंटेट को देखने के लिए जिसमें कोई ताजगी नहीं हो, दर्शक थियेटर में नहीं जाएंगे। इंटरनेट की दुनिया ने उनके मनोरंजन के साधनों का विस्तार कर दिया है। टिपिकल ट्रेडिशनल फिल्मी ड्रामा देखने के बजाये वे लोग रियलिस्टिक कंटेट की ओर भाग रहे हैं। जबकि भोजपुरी सिनेमा आज भी लकीर का फकीर से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। कंटेट के स्तर पर भोजपुरी फिल्मकारों के पास दर्शकों को कुछ नया देने के लिए है क्या? कुछ लोग मजबूत पीआर प्रैक्टिस की वजह से खुद को भोजपुरी फिल्मों का सुपरस्टार घोषित किए हुए हैं, उन्होंने अपने कुछ चेले-चपाटी भी रख छोड़े हैं जो भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में उनकी हवा बनाते रहते हैं। यही लोग फिल्म की कहानी भी डेवलप करते हैं, और स्क्रीप्ट भी, यदि कुछ रहता है तो। अब किसी फिल्म निर्माता या डायरेक्टर की हिम्मत नहीं होती है कि उनसे स्क्रीप्ट के मुताबिक काम ले। इतना ही नहीं इनके बीच जातीय लामबंदी भी मजबूती से वर्क करता है। किसी के कंट्रोल में यादवों का बेल्ट है तो किसी कंट्रोल में राजपूतों का, तो किसी के कंट्रोल में ब्राह्मणों का। एक बेहतर फिल्म बनाने के लिए आप एक साथ इन सब बीमारियों से कैसे निपटेंगे? यही वजह है कि मैंने अब भोजपुरी फिल्म बनाने से ही तौबा कर ली।”

भोजपुरी फिल्मों के सामने सबसे बड़ी चुनौती के सवाल पर वह कहते हैं कि भोजपुरी बोलने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग भोजपुरी भाषा से कटा हुआ है। वे लोग खुद थियटरों में भोजपुरी फिल्म देखने नहीं जाते हैं। इतना ही नहीं महानगरों में रह रहे ये लोग यह स्वीकार करने से भी कतराते हैं कि वे भोजपुरी भाषी है। जबकि बंगाली भाषी या दूसरे प्रांतों की अन्य भाषाभाषी लोग जब मिलते हैं तो आपस में अपनी भाषा में बात करते हैं।